राज्य में तेजी से हो रहे शहरीकरण और आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव ने कृषि भूमि के अस्तित्व पर गहरा असर डाला है। उत्तराखंड के गठन से लेकर अब तक, बीते 24 वर्षों में राज्य की 26% खेती योग्य जमीन खत्म हो चुकी है। जहां एक समय 7.77 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती की जाती थी, वह अब घटकर मात्र 5.68 लाख हेक्टेयर रह गया है।
शहरीकरण का असर: खेतों की जगह मॉल और मकान
आधुनिकता और शहरीकरण के चलते खेत-खलिहान अब मकानों, दुकानों, और मॉल में तब्दील हो गए हैं। सड़कों के गांव-गांव तक पहुंचने के बाद जहां लोगों को सुविधाएं मिलीं, वहीं पलायन और जंगली जानवरों के बढ़ते आतंक ने खेती को और मुश्किल बना दिया।
खाली पड़ी जमीनों का बढ़ता आंकड़ा
खाली पड़ी जमीन, जिसे ‘परती भूमि’ कहा जाता है, उत्तराखंड में तेजी से बढ़ी है। राज्य गठन के समय 1.07 लाख हेक्टेयर परती भूमि थी, जो 2022-23 तक बढ़कर 2.16 लाख हेक्टेयर हो गई। इसके पीछे पलायन, किसानों का खेती छोड़ना, और जंगली जानवरों से फसल को होने वाले नुकसान प्रमुख कारण हैं।
मंडलवार आंकड़े: दो साल में भारी नुकसान
पिछले दो वर्षों में ही खेती योग्य भूमि में भारी कमी देखी गई है।
- कुमाऊं मंडल: 3,23,275 हेक्टेयर से घटकर 2,88,177 हेक्टेयर (35,098 हेक्टेयर की कमी)।
- गढ़वाल मंडल: 3,24,513 हेक्टेयर से घटकर 2,80,311 हेक्टेयर (44,202 हेक्टेयर की कमी)।
- कुल मिलाकर: 79,300 हेक्टेयर की भूमि कम हो चुकी है।
ग्रामीण जीवन पर प्रभाव
शहरीकरण के साथ-साथ गांवों से पलायन ने खेती की तस्वीर ही बदल दी है। रोजगार की तलाश में युवा पीढ़ी गांव छोड़कर शहरों की ओर रुख कर रही है। इसके परिणामस्वरूप खेत खाली पड़ रहे हैं, और जंगली जानवरों के कारण नुकसान बढ़ता जा रहा है।
क्या हो सकते हैं समाधान?
- तकनीकी खेती का प्रोत्साहन: आधुनिक कृषि तकनीकों का उपयोग कर किसानों को खेती में रुचि दिलाई जा सकती है।
- पलायन रोकने के उपाय: ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा कर पलायन की समस्या को कम किया जा सकता है।
- जंगली जानवरों से सुरक्षा: सरकार को फसलों को जंगली जानवरों से बचाने के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए।
- नीतिगत बदलाव: भूमि संरक्षण और कृषि प्रोत्साहन के लिए ठोस नीतियां बनानी होंगी।
एक चिंताजनक तस्वीर
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में खेती का महत्व हमेशा से रहा है, लेकिन मौजूदा हालात में यह स्पष्ट है कि राज्य को इस क्षेत्र में गंभीर कदम उठाने की जरूरत है। अगर स्थिति में सुधार नहीं हुआ, तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण दोनों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।