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ज़ाकिर हुसैन और मोहन भागवत के बीच: विविधता की महत्ता पर सबक

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Last updated: 2024/12/21 at 10:23 PM
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भारत के इतिहास में विदेशी आक्रमणों के कारणों पर नज़र डालें, तो साफ होता है कि आंतरिक एकता की कमी और संकीर्ण दृष्टिकोण वाले नेताओं की असफलता ने बार-बार देश को कमजोर किया। आज, एक बड़ा सवाल यह है कि धार्मिक ध्रुवीकरण हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करेगा या कमजोर करेगा? और क्या चुनाव जीतना राष्ट्रीय हित से ऊपर रखा जा सकता है?

Contents
सांस्कृतिक समरसता का प्रतीक: ज़ाकिर हुसैन और अल्ला रक्खा का दृष्टिकोणधार्मिक विविधता: भारत की असली पहचानध्रुवीकरण बनाम सामाजिक एकताराजनीति में बढ़ता ध्रुवीकरणअतीत से सबक लेने की जरूरत“वसुधैव कुटुंबकम्” का आदर्शएकता और समरसता का मॉडल पेश करने की जरूरत

सांस्कृतिक समरसता का प्रतीक: ज़ाकिर हुसैन और अल्ला रक्खा का दृष्टिकोण

हाल ही में मशहूर तबला वादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के निधन के बाद उनका एक पुराना वीडियो क्लिप फिर से वायरल हुआ। इस वीडियो में उन्होंने अपने पिता, अल्ला रक्खा का जिक्र किया, जिन्होंने कहा था, “मैं देवी सरस्वती और भगवान गणेश का उपासक हूं। ये मेरे गुरु हैं और इसी तरह मैं प्रार्थना करता हूं।”

यह कथन इस बात का प्रतीक है कि भारत में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सदियों पुरानी सांस्कृतिक समरसता आज भी अद्वितीय है। इसे ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ के नाम से जाना जाता है, जो भारत की साझी विरासत और धार्मिक सहिष्णुता की मिसाल है। लेकिन क्या आज हम इस समरसता और भारत की परंपरागत सहिष्णुता की भावना को ठुकरा रहे हैं?

धार्मिक विविधता: भारत की असली पहचान

भारत में इस्लाम की शुरुआत 712 ईस्वी में सिंध पर अरब आक्रमण के दौरान हुई और यह मुग़ल काल में व्यापक रूप से स्थापित हुआ। कई हिंदुओं ने जातिगत भेदभाव से बचने के लिए इस्लाम अपनाया। वहीं, ईसाई धर्म की जड़ें संत थॉमस के 52 ईस्वी में केरल आगमन से जुड़ी हैं। यहूदी, पारसी और बहाई जैसे अन्य धर्मों ने भी भारत में शरण पाई।

आज, भारत में धार्मिक विविधता के आँकड़े इस प्रकार हैं: हिंदू (79.8%), मुस्लिम (14.2%), और ईसाई (2.3%)। इन आँकड़ों के मद्देनजर यह दावा करना न केवल भ्रामक है, बल्कि खतरनाक भी है कि हिंदुओं पर जनसांख्यिकीय खतरा मंडरा रहा है।

ध्रुवीकरण बनाम सामाजिक एकता

1996 में, अमेरिकी सामाजिक वैज्ञानिक सैम्युएल हंटिंगटन ने “सभ्यताओं के संघर्ष” (Clash of Civilisations) का सिद्धांत पेश किया। उन्होंने तर्क दिया कि भविष्य में संघर्ष विचारधाराओं के बीच नहीं, बल्कि संस्कृतियों और धर्मों के बीच होगा। भारत, अपनी विशाल सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के साथ, इस सिद्धांत का एक संभावित उदाहरण लगता है।

हालांकि, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने अब तक इस विभाजनकारी भविष्यवाणी को गलत साबित किया है। लेकिन आज की परिस्थिति पर नज़र डालें, तो क्या हम सच में इस संघर्ष से बच सके हैं?

राजनीति में बढ़ता ध्रुवीकरण

पिछली सरकारों ने अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए तुष्टीकरण की नीति अपनाई, लेकिन अब अल्पसंख्यकों को भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाना, घरों को तोड़ना और सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाएँ आम हो गई हैं।

ध्रुवीकरण और नफरत भरे भाषण अब चुनावी जीत का आसान साधन बन गए हैं। लेकिन क्या यह रणनीति हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान नहीं पहुंचा रही?

अतीत से सबक लेने की जरूरत

इतिहास गवाह है कि भारत विदेशी आक्रमणों के सामने इसलिए कमजोर पड़ा क्योंकि हमारे नेता व्यक्तिगत हितों से ऊपर नहीं उठ सके। लेकिन दुनिया के कई नेता, जैसे कि गारिबाल्डी, बिस्मार्क, और नेल्सन मंडेला, आज इसलिए याद किए जाते हैं क्योंकि उन्होंने विविधताओं को एकता में बदला।

आज भारत के राजनीतिक नेताओं के पास यह मौका है कि वे बदले की राजनीति के बजाय सामाजिक एकता और वैज्ञानिक प्रगति की दिशा में युवाओं को प्रेरित करें।

“वसुधैव कुटुंबकम्” का आदर्श

प्राचीन हिंदू दर्शन में “वसुधैव कुटुंबकम्” का महत्व है, जिसका अर्थ है “संपूर्ण विश्व एक परिवार है”। यही आदर्श भारत को “विश्वगुरु” बनाने के दावे को बल प्रदान करता है।

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जून 2022 में नागपुर में एक सभा के दौरान कहा था, “हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?” और इस सवाल का उत्तर दिया, “हमारे यहाँ सबकी मान्यता और पवित्रता का सम्मान है।”

एकता और समरसता का मॉडल पेश करने की जरूरत

भारत की बहुधर्मी समाज में सामाजिक एकता ही देश की समृद्धि और सुरक्षा की कुंजी है। अगर हमें दुनिया को एकता का संदेश देना है, तो हमें पहले अपने समाज में इसका मॉडल तैयार करना होगा।

भारत को अपने युवाओं और नागरिकों को यह संदेश देना होगा कि धर्म के नाम पर विभाजन करने के बजाय, हमें एकजुट होकर देश के निर्माण में योगदान देना चाहिए।

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