विपक्षी दलों के हंगामे और कड़े विरोध के बीच मंगलवार को लोकसभा में “वन नेशन, वन इलेक्शन” से जुड़े दो संविधान संशोधन विधेयकों को पेश किया गया। इस दौरान हुए मतदान में 269 सांसदों ने बिल को पेश करने के पक्ष में वोट दिया, जबकि 198 सांसद इसके खिलाफ खड़े रहे। हालाँकि विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है, लेकिन जानकारों का कहना है कि बिल पेश करने के लिए सरकार को विशेष बहुमत (टू-थर्ड मेजोरिटी) की ज़रूरत ही नहीं होती।
विपक्ष के आरोप और सरकार का रुख
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा, “बिल को पेश करने के लिए हुई वोटिंग से स्पष्ट हो गया है कि बीजेपी के पास संविधान संशोधन पास कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत नहीं है। यह बिल संघीय ढांचे पर चोट करता है। आखिर केंद्र सरकार गिरने पर किसी राज्य सरकार को क्यों गिरना चाहिए?”
थरूर ने संसद परिसर में कहा, “हम केवल अकेले नहीं हैं। तमाम विपक्षी दलों ने इस बिल का विरोध किया है। यह बिल न केवल अव्यवहारिक है, बल्कि इसकी प्रक्रिया में कई खामियाँ हैं।”
वहीं, गृह मंत्री अमित शाह और संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने विपक्ष के विरोध के बावजूद स्पष्ट कर दिया कि सरकार इन दोनों विधेयकों को संसदीय संयुक्त समिति (Joint Committee) के पास भेजने को तैयार है ताकि गहराई से इन पर विचार हो सके।
संविधान संशोधन बिल: क्या कहता है नियमों का खेल?
जहां विपक्ष ने सरकार पर बहुमत न जुटा पाने के आरोप लगाए, वहीं संसद के पूर्व महासचिव पी. डी. टी. आचार्य ने स्पष्ट किया कि संविधान संशोधन बिल को पेश करने के लिए विशेष बहुमत की ज़रूरत नहीं होती।
संसद के नियमों के मुताबिक, संविधान संशोधन बिल को पेश करने या सेलेक्ट कमिटी या जॉइंट कमिटी को भेजने के लिए सिर्फ साधारण बहुमत (Simple Majority) की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत केवल बिल के अंतिम चरण में, यानी जब बिल को पारित (पास) किया जाता है, तब लागू होता है।
अनुच्छेद 368: संशोधन के लिए संसद की शक्ति
संविधान का अनुच्छेद 368 स्पष्ट करता है कि संविधान में संशोधन केवल तभी पारित माना जाएगा जब:
- बिल को कुल सदस्यों की बहुमत और
- सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों की मंजूरी मिले।
हालाँकि, यह विशेष बहुमत केवल बिल के अंतिम चरण में आवश्यक है।
संसदीय प्रक्रिया की बारीकी
लोकसभा के नियम 157 में साफ लिखा है कि यदि किसी संविधान संशोधन बिल पर यह प्रस्ताव हो कि:
- बिल पर विचार किया जाए, या
- सेलेक्ट/जॉइंट कमिटी की रिपोर्ट पर विचार किया जाए, या
- संशोधित बिल को पारित किया जाए,
तो यह प्रस्ताव तभी पास माना जाएगा जब इसे कुल सदस्यों की बहुमत और उपस्थित तथा मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन मिले। लेकिन बिल को पेश करने और संसदीय समिति को भेजने के चरण में यह नियम लागू नहीं होता।
वहीं, नियम 158 के अनुसार, जब भी किसी प्रस्ताव पर विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, तब मतदान (डिवीज़न) की प्रक्रिया अपनाई जाती है।
क्या कहती है विशेषज्ञों की राय?
संसदीय प्रक्रियाओं के जाने-माने विशेषज्ञ एम.एन. कौल और एस.एल. शाकधर की किताब ‘प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर ऑफ पार्लियामेंट’ भी यही कहती है कि विशेष बहुमत की ज़रूरत मुख्य रूप से बिल के तीसरे पठन (थर्ड रीडिंग) के समय होती है। बिल पेश करने, सेलेक्ट या जॉइंट कमिटी को भेजने या सार्वजनिक राय लेने के चरणों में साधारण बहुमत ही पर्याप्त है।
निष्कर्ष: बहस से सच तक
विपक्ष भले ही इसे सरकार की ‘नाकामी’ बताकर सियासी बढ़त हासिल करने की कोशिश कर रहा हो, लेकिन संवैधानिक नियमों के मुताबिक, सरकार को बिल पेश करने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता नहीं थी। हाँ, इस विधेयक का आगे का रास्ता कितना आसान या मुश्किल होगा, यह आने वाले दिनों में संसद की कार्यवाही और राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर करेगा।