जाकिर हुसैन का तबला बजाना महज संगीत नहीं था, बल्कि यह आत्मा को छूने वाला एक अनुभव था। उनकी उंगलियों के स्पर्श से तबले के बोल जीवंत हो उठते, मानो कोई कहानी कह रहे हों। उनके सुरों में एक ऐसी शक्ति थी, जो सुनने वाले को खुद के भीतर झांकने का मौका देती थी।
रविवार को सैन फ्रांसिस्को में 73 वर्ष की उम्र में जाकिर हुसैन का निधन हो गया। उनके परिवार ने इस बात की पुष्टि की कि वह इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस नामक बीमारी से पीड़ित थे। लगभग दो सप्ताह तक अस्पताल में भर्ती रहने के बाद उनका निधन हुआ। उनके परिवार ने एक बयान में कहा, “उस्ताद जाकिर हुसैन ने संगीत की दुनिया को जो विरासत सौंपी है, वह हमेशा अमूल्य रहेगी। वह एक शिक्षक, मार्गदर्शक और सांस्कृतिक दूत के रूप में भी बेमिसाल थे।”
एक विलक्षण प्रतिभा का उदय
जाकिर हुसैन जैसे संगीतज्ञ सदियों में एक बार जन्म लेते हैं। उनके भीतर एक ऐसा जुनून था, जिसने उन्हें न सिर्फ तबले का उस्ताद बनाया, बल्कि इसे विश्व मंच पर भारत की पहचान बना दिया। उनकी उंगलियों से जब तबले पर सुर निकलते, तो वह संगीत सुनने वालों को एक अलग दुनिया में ले जाते।
उनकी यात्रा बचपन से ही शुरू हो गई थी। कहानी कहती है कि जब वह पैदा हुए, तो उनके पिता और मशहूर तबला वादक उस्ताद अल्ला रक्खा ने उनके कान में तबले के बोल फुसफुसाए। उनके पिता के लिए तबला बजाना इबादत से कम नहीं था।
अल्ला रक्खा जितने प्यार करने वाले पिता थे, उतने ही कठोर गुरु भी। उन्होंने जाकिर को तीन साल की उम्र से सिखाना शुरू कर दिया। यह सिखावन सिर्फ संगीत तक सीमित नहीं थी, बल्कि गणितीय खेलों और जीवन की कहानियों में भी छिपी होती। जाकिर ने अपने पिता की हर शिक्षा को आत्मसात किया।
हालांकि, जाकिर भी अपने उम्र के बच्चों की तरह क्रिकेट खेलना चाहते थे। एक बार गेंद से उनकी उंगली चोटिल हो गई, तो उनके पिता ने उन्हें डांटते हुए क्रिकेट खेलने से मना कर दिया। लेकिन यह डांट उन्हें संगीत की ओर और अधिक समर्पित करने के लिए थी। सुबह 4 बजे से शुरू होने वाला रियाज उनके जीवन का हिस्सा बन गया।
तबले को वैश्विक पहचान दिलाई
सिर्फ 12-13 साल की उम्र में जाकिर ने अपने पिता के साथ मंच पर तबला बजाना शुरू कर दिया। 20 साल की उम्र में वह अमेरिका चले गए और वहां अली अकबर कॉलेज ऑफ म्यूजिक में पढ़ाने लगे। यहीं पर उनकी मुलाकात मशहूर गिटारिस्ट जॉन मैकलॉघलिन से हुई। उन्होंने 1973 में शक्ति नामक बैंड की शुरुआत की, जिसने भारतीय और पश्चिमी संगीत के बीच एक नया पुल बना दिया।
उनके पिता ने तबले को मुख्य वाद्य यंत्र का दर्जा दिया, और जाकिर ने इसे एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। उन्होंने तबले को सिर्फ संगीत का एक साधन नहीं, बल्कि एक ग्लैमरस और अनोखा अनुभव बना दिया। चाहे वह मिले सुर मेरा तुम्हारा जैसी एकता का संदेश देने वाले गीत हों, या सर्दियों में होने वाले लाइव कॉन्सर्ट्स—हर बार उन्होंने अपने संगीत से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
संगीत के सच्चे सेवक
जाकिर हुसैन सिर्फ एक संगीतकार नहीं थे; वह एक विचारधारा थे। उन्होंने कई महान संगीतकारों के साथ काम किया और तबले को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाई। उनका मानना था कि संगीत एक ऐसी भाषा है, जो हर दीवार को गिरा सकती है और हर दिल को जोड़ सकती है।
उनकी आंखों में हमेशा एक चमक होती थी, जो उनके संगीत से भी झलकती थी। उन्होंने जीवन के हर पहलू को संगीत में पिरो दिया और तबले को केवल एक यंत्र से आगे बढ़ाकर एक सांस्कृतिक प्रतीक बना दिया।
हमेशा के लिए विदा
पिछले कुछ दशकों में जाकिर ने अपने संगीत से अनगिनत दिलों को छुआ। वह संगीत के माध्यम से एकता और प्रेम का संदेश देते रहे। लेकिन उनका जाना एक युग के अंत जैसा है।
जाकिर हुसैन ने न सिर्फ संगीत को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया, बल्कि उन्होंने यह भी सिखाया कि अपनी कला को पूरी लगन और ईमानदारी से जीना ही सच्चा समर्पण है। आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी धुनें हमेशा हमारे दिलों में गूंजती रहेंगी।
“तबले की हर थाप में वह जीवित रहेंगे। उनकी विरासत अमर है।”